Monday, September 17, 2018

नज़रिया: जेएनयू में हार के बाद क्या होगी संघ की रणनीति

अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् एक बार फिर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्र संघ में जगह बनाने में नाकाम रही है. मीडिया के लिए यह ख़बर किसी विधानसभा चुनाव से कम महत्व की नहीं थी.
चुनाव में छात्र संघ के अध्यक्ष पद के प्रत्याशियों के मशहूर वाद-विवाद से लेकर मतदान और मतों की गिनती और फिर परिणाम की घोषणा, पल-पल की ख़बर मीडिया ले और दे रहा था.
जेएनयू को भले ही व्यंग्यपूर्वक "द रिपब्लिक ऑफ़ जेएनयू" कहा जाए, इस गणतंत्र में स्वीकृति की तमन्ना सबसे बड़े देश भक्त को भी रहती ही है. जब देश ने वामपंथ को ठुकरा दिया तो जेएनयू ही इसे पनाह दिए हुए है.
इसे जेएनयू का राष्ट्र के विरुद्ध अपराध माना जाता है. कुछ इसे जेएनयू का वैचारिक पिछड़ापन भी मानते हैं.
पिछले सालों में यह तक कहा गया है कि देश के लोगों के पैसे पर जेएनयू के छात्र अय्याशी करते हैं. पूछने वालों ने यहाँ तक पूछा है कि आख़िर पांच साल तक पीएचडी करते रहने की काहिली क्यों!
साल 2016 के बाद से इस पर भारत सरकार के केन्द्रीय मंत्रियों से लेकर शासक दल के हर स्तर के नेता ने हमला किया है. केन्द्रीय गृह मंत्री ने तो सीमा पार सक्रिय आतंकवादी समूहों से जेएनयू के वामपंथी छात्र नेताओं के सीधे रिश्ते की खुफ़िया जानकारी का दावा तक किया था.
जेएनयू को देश को तोड़ने का सपना देखनेवालों, "शहरी नक्सल या माओवादियों" आदि का पनाहगाह तक बताया गया है. मानो यह कोई जंगल या बीहड़ हो जहाँ देशद्रोही छिपकर षड्यंत्र करते रहते हैं इसलिए इस क़िले को ध्वस्त करना राष्ट्रीय कर्तव्य है.
सेना तो नहीं भेजी गई इस दुर्ग का भेदन करने के लिए लेकिन पूर्व सैनिक ज़रूर गए और उन्होंने कुलपति को बताया कि कैसे इस बाग़ी को क़ाबू में लाया जा सकता है.
जितना ध्यान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या भारतीय जनता पार्टी का पाकिस्तान पर रहता है, आनुपातिक रूप से जेएनयू पर उससे कम नहीं रहता.
पिछले तीन वर्षों में इस धुंआधार प्रचार का नतीजा यह है कि गाँव गाँव में यह माननेवालों की संख्या कम नहीं कि इसे बंद कर देना चाहिए. आख़िर अपने ही पैसे पर अपनी थाली में छेद करने वालों को तो मूर्ख ही पालते हैं!एनयू एक ग्रंथि है,एक कांपलैक्स जिससे आरएसएस और उसके सभी संगठन पिछले चालीस साल से बुरी तरह पीड़ित हैं. एक मित्र ने बताया कि बिहार के मिथिलांचल के एक गाँव में संघ के एक स्वयंसेवक ने उन्हें कहा कि जेएनयू पर कब्ज़ा हमारा लक्ष्य है.
इसका एक कारण तो यह रहा है कि जेएनयू में विज्ञान के विभागों के बावजूद इसकी पहचान मानविकी और समाज विज्ञान के कारण है. उसमें भी यह अपने इतिहासकारों की वजह से स्कूली स्तर तक प्रसिद्ध है. अगर स्कूली इतिहास बोध की बात करें तो जेएनयू की भूमिका उसमें केंद्रीय रही है.
रोमिला थापर और बिपन चंद्र दो छोर हैं, प्राचीन भारत और आधुनिक भारत की कहानी गढ़ने में. जेएनयू के ये दो नाम आरएसएस को दुस्स्वप्न की तरह सताते हैं.
न सिर्फ़ इन्होंने विद्वत्तापूर्ण पुस्तकें लिखी हैं बल्कि इनकी लिखी स्कूली किताबों को पढ़कर पीढ़ियों ने अपना इतिहास बोध और भारत बोध बनाया और विकसित किया है.
इन इतिहासकारों की शिष्यों की भी पीढ़ियाँ हैं जो पूरे भारत के अलग अलग विश्वविद्यालयों में पढ़ा रही हैं, और लिख भी रही हैं. दी में हर किसी का सपना नामवर सिंह बनने का रहता है. कुछ नहीं तो उनसे पढ़ लेना भी बड़ी योग्यता मानी जाती रही है. यह उस हिंदी का हाल है जिसके बिना हिंदी हिंदू हिन्दुस्तान बन ही नहीं सकता.
इतिहास और भाषा, आरएसएस के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की परियोजना के लिए अहम हैं. अगर उनका प्रभुत्वशाली स्वर राष्ट्रवादी न होकर किसी प्रकार का वामपंथी हो तो फिर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद अपने पैर कैसे फैलाए?श्चर्य नहीं कि पिछले कई दशकों से रोमिला थापर को आरएसएस ने अपना प्रमुख बौद्धिक शत्रु मानकर उनपर हमला जारी रखा है.
जो सावरकरी और दीनदयाली भारतीयता से ग्रस्त हैं, वे भी दबे-छिपे मानते हैं कि है यह नारेबाजी और इसमें बौद्धिकता की वह दृढ़ता नहीं जो रोमिला में है.
बिपन ने जो राष्ट्रवादी आख्यान रच दिया है, अब तक संघ उसकी प्रभावी काट नहीं कर पाया. इनके भी अनेक शिष्य हैं जो किताबें लिखते चले जा रहे हैं और जाने कहाँ कहाँ कक्षाओं में छिपे हुए हैं.
इन इतिहासकारों और अन्य विद्वानों से नाराज़गी और चिढ़ ने इनके ख़िलाफ़ संघ के मन में एक हिंसा पैदा की है.
आरएसएस के "बौद्धिक" प्रभुत्व के लिए ज़रूरी है कि जेएनयू का यह बौद्धिक स्वर किसी तरह ख़ामोश किया जा सके.
संघ के एक संगठन के एक प्रवक्ता से जब मैंने कहा कि आप इनकी किताबें जलाने की जगह, इनके मुक़ाबले की किताब क्यों नहीं लिख देते, तो उनका जवाब था कि किताब लिखने में बहुत वक्त लगता है. जलाने में तो बस एक तीली भर लगानी है!
जेएनयू का नौजवान, ग़लत या सही, बौद्धिक माना जाता है. जब तक वह आपको क़बूल न करे आपकी इज़्ज़त ही क्या रही!
आरएसएस का सपना इन नौजवानों की स्वीकृति पाने का रहा है. जेएनयू की उच्च बौद्धिकता उसे सतही मानती है और इसलिए विचारणीय भी नहीं मानती. यह सबसे तकलीफ़देह और अपमानजनक है. इसीलिए अगर बौद्धिक स्वीकृति न मिले तो बाहुबल या सत्ता बल से ही इस 'अंहकार' को तोड़ना होगा! वही अभियान पिछले तीन वर्षों में उग्र हो गया है.
इस साल भी छात्र संघ में प्रवेश के संघ के प्रयास को जेएनयू के छात्रों के द्वारा ठुकरा दिए जाने के बाद हो सकता है कि इस उग्रता में और तीव्रता आए!

Wednesday, September 12, 2018

यानी इससे जो पानी निकलेगा वो सस्ता भी पड़ेगा

मृत्यु अटल है. एक दिन यह आनी ही आनी है. टाइम मैनेजमेंट का यह अहम पहलू है, जिसे नज़रअंदाज कर दिया जाता है.
एयॉन कहते हैं, "पहले कब्रिस्तान शहरों में होते थे, लेकिन अब वो नज़रों से दूर होते हैं. इससे हम मृत्यु के बारे में सोच नहीं पाते."
"आधुनिक समाज में मृत्यु की याद दिलाने वाली चीजें कम हो रही हैं. हम यह भूल जाते हैं कि हमारे पास वक़्त कम है और जितना वक़्त है उसमें हमें खुश रहना है."
मृत्यु के बारे में गंभीरता से सोचने के बाद एयॉन ने दूसरों की उम्मीदों को पूरा करना छोड़ दिया और अपने बारे में खुद अपने नियम बनाए.
एयॉन पूरे 9 घंटे सोने के बाद सुबह 9 बजे उठते हैं और दिन में सिर्फ 4 घंटे काम करते हैं. वह दिन में सिर्फ़ एक बार ई-मेल चेक करते हैं, वह भी कामकाजी दिनों में. वह जिम जाते हैं और रोज पढ़ते हैं. यह पढ़ाई उन्हें शोध के लिए नये विचार देती है.
एयॉन कहते हैं, "आपके समय को बांधने की जगह ये टूल्स आपके जीवन पर आपका नियंत्रण बनाने वाले होने चाहिए."
क्या यह नौकरी मेरे लिए है? क्या मैं अपनी पत्नी से अलग हो जाऊं? क्या मुझे बच्चे की जरूरत है? एयॉन के मुताबिक ये सारे सवाल टाइम मैनेजमेंट से जुड़े हैं, लेकिन लोग इनके बारे में सोचते नहीं, क्योंकि यह सब सोचना उनको मुश्किल लगता है."
ज़िंदगी के बड़े सवालों को छोड़कर कुछ आसान उपायों की तरफ देखते हैं. पहली बात यह गांठ बांध लीजिए कि उत्पादकता की एक सीमा है. दूसरी बात यह कि आपके व्यक्तित्व और आदतों के मुताबिक कोई टूल ढूंढना मुश्किल है.
किसी भी तरह के टूल से दूर रहने वाले लोग मानते हैं कि व्यवस्थित रहने भर से उनकी मुश्किल आसान हो जाती है.
जो लोग रूटीन के पाबंद हैं, उनके लिए एयॉन की सलाह है कि "उन्हें कभी-कभी यह देखना चाहिए कि कैलेंडर के बिना जीवन कैसा होता है."
टाइम मैनेजमेंट टूल्स का विज्ञापन करने वाले वीडियो और ब्लॉग ज़िंदगी को आसान बनाकर देखते हैं. लेकिन जिसने भी इन ऐप्स का इस्तेमाल शुरू किया, उनका जीवन और कठिन हो गया.
कैले अब कागज-कलम से स्प्रैडशीट बनाती हैं. उनको ऐप्स से नफरत हो गई है. बोर्डेवे ने अपने लिए 5 सेकेंड का एक नियम बनाया है.
किसी भी मुश्किल काम को करने से पहले बोर्डेवे आंखें बंद करके गहरी सांस लेती हैं, एक से पांच तक गिनती हैं और काम में लग जाती हैं.
याद रखिए कि खुद के लिए ज्यादा कठोर नहीं बनना है. अपने आप को कोसना आपकी उत्पादकता के लिए नुकसानदेह है. यह आपके दिमाग पर बोझ बढ़ाता है. खुद पर भी थोड़ा तरस खाइए.
हर जगह की हवा में पानी होता है. फिर वो तपते रेगिस्तान में बहने वाली हवा हो, या फिर लगातार बारिश वाले इलाक़े की. एक अंदाज़े के मुताबिक़ दुनिया भर में 3100 क्यूबिक मील या 12 हज़ार 900 क्यूबिक किलोमीटर पानी, हवा में नमी के रूप में पैबस्त है.
पानी की ये तादाद कितनी है, इसका अंदाज़ा इस बात से लगा सकते हैं कि उत्तरी अमरीका की सबसे बड़ी झील लेक सुपीरियर में भी इतना पानी नहीं है.
लेक सुपीरियर में 11 हज़ार 600 क्यूबिक किलोमीटर ही पानी है. वहीं अफ्रीका की विशाल झील विक्टोरिया में महज़ 2700 क्यूबिक किलोमीटर पानी है.
ब्रिटेन की डरावनी झील लॉक नेस में जितना पानी है, उससे 418 गुना ज़्यादा पानी हवा में क़ैद है.
याद रखिए हम बादलों की बात नहीं कर रहे हैं. हम हवा में क़ैद उस पानी की बात कर रहे हैं, जो नमी के रूप में होता है. इस पानी को आप उस वक़्त देखते हैं, जब कोल्ड ड्रिंक से भरे गिलास के ऊपर कुछ बूंदें जमा हो जाती हैं. हवा में पैबस्त ये पानी आपको घास पर ओस की बूंदों के तौर पर भी दिखाई देता है.
पानी की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए अब हवा में मौजूद इस मीठे पानी पीने को निकालने की जुगत भिड़ाई जा रही है.
हवा से पानी निचोड़ने की इस रेस में जो मशीन सब से आगे है, उसका नाम है 'वाटर फ्रॉम एयर. अगर ये मशीन कारगर रही, तो दुनिया में पीने के पानी की समस्या का एक बढ़िया तोड़ निकल आएगा.
कहा जा रहा है कि 2025 तक दुनिया की तेज़ी से बढ़ती आबादी का दो तिहाई हिस्सा, पानी की किल्लत से दो-चार होगा.
आज की तारीख़ में दुनिया में 2.1 अरब लोग साफ़ पीने के पानी से महरूम हैं. दुनिया के सबसे ग़रीब लोगों को पीने के पानी की सबसे ज़्यादा क़ीमत चुकानी पड़ रही है.
वो ये जानते हुए पीने का पानी इस्तेमाल करते हैं कि ये उनके लिए ख़तरनाक हो सकता है. प्रदूषित पानी पीने की वजह से हर साल दुनिया भर में क़रीब 5 लाख लोग डायरिया से मर जाते हैं.
ग़रीब देशों के मुक़ाबले ज़्यादा पानी इस्तेमाल करने वाले अमीर मुल्कों में उद्योगों और खेती में पानी का बेतहाशा इस्तेमाल होता है. नतीजा ये कि इन देशों में नदियों का पानी और भूगर्भ जल के स्रोत सूखते जा रहे हैं.
पीने के पानी को लेकर भरोसे का मसला भी है. प्रशासनिक अधिकारी जिस पानी के साफ-सुथरे होने का दावा करते हैं, वो अक्सर सफ़ाई के पैमानों पर खरा नहीं उतरता. अमरीका के फ्लिंट नाम के शहर में जिस पानी को साफ़ बता कर सप्लाई किया जा रहा था, उसमें रेडियोएक्टिव तत्व, आर्सेनिक और सीसा पाए गए.
यही वजह है कि मध्यम वर्ग पीने के लिए बोतलबंद पानी का इस्तेमाल बढ़ाता जा रहा है. दुनिया भर में पीने के बोतलबंद पानी का कारोबार 10 फ़ीसद सालाना की दर से बढ़ रहा है.
2017 में 391 अरब लीटर बोतलबंद पानी दुनिया भर में बेचा गया था. ये डेढ़ लाख ओलंपिक स्विमिंग पूलों में भरे पानी की मात्रा से भी ज़्यादा था.
ज़ाहिर है कि आज इंसान को पीने के पानी का ऐसा स्रोत चाहिए, जो बीमार न करे, गरीबों की पहुंच में हो और रईस भी उसे इस्तेमाल करना चाहें.
वैसे हवा से पानी खींचना कोई नया ख़्याल नहीं है. हवा से नमी सोखने की मशीनें बहुत पहले से इस्तेमाल होती आई हैं. लेकिन, ये मशीनें, हवा से जो पानी खींचती हैं, वो न तो साफ़ होता है, न ही उसमें वो मिनरल होते हैं, जिनकी हमें ज़रूरत है.
लेकिन अब नमी सोखने वाली इन मशीनों की तकनीक से कई कंपनियां ऐसे यंत्र बनाने में जुटी हैं, जो हवा की नमी को सोख कर हमें पानी की सप्लाई दे सके. हवा से नमी सोखने वाली मशीनों को डिह्यूमिडीफ़ायर कहते हैं. ये हमारे घरेलू फ्रिज की तरह काम करती हैं.
वाटर फिल्टर फ्रॉम एयर मशीन भी ऐसे ही काम करती है. लेकिन, इससे जो पानी जमा होता है, उसे फिल्टर किया जाता है, अल्ट्रावायोलेट किरणों से ट्रीट किया जाता है. फिर उसमे ज़रूरी मिनरल मिलाकर पीने के लायक़ बनाया जाता है.
कनाडा के जल सलाहकार रोलां वाल्ग्रेन दुनिया भर में इस्तेमाल हो रही डब्ल्यूएफए तकनीक पर नज़र रखते हैं और इसे अपनी वेबसाइट  . में डालते हैं. उनके डेटाबेस में फिलहाल 71 कंपनियां दर्ज हैं.
इनमें से 64 मेकेनिकल रेफ्रिजरेशन तकनीक का इस्तेमाल कर के हवा से पानी निकाल रही हैं. रोलां वाल्ग्रीन कहते हैं कि एक लीटर पानी ऐसे निकालने में 0.4 किलोवाट बिजली ख़र्च होती है. अमरीका में इतनी बिजली की क़ीमत 5.2 सेंट है.
दक्षिणी अफ्रीकी कंपनी वाटर फ्रॉम एयर घरों में इस्तेमाल के लिए वाटर कूलर बनाती है. इसकी मशीन से रोज़ाना 32 लीटर पानी जमा किया जा सकता है. इस कंपनी के वाटर कूलर को चलाने के लिए बार-बार पानी की बोतल नहीं लगानी पड़ती. कंपनी का वाटर कूलर अपनी ज़रूरत का पानी हवा से सोख लेता है.
इसी तरह एक भारतीय कंपनी वाटरमेकर छोटे से लेकर ट्रकों के आकार के वाटर कूलर बेचती है, जो एक गांव की ज़रूरतें पूरी कर सकती है.
हवा से पानी सोखने वाली ये मशीनें तभी काम करती हैं, जब हवा में भरपूर नमी हो. ऐसी ज़्यादातर मशीनें 60 फ़ीसद नमी वाले माहौल में अच्छा काम करती हैं. तो, अगर आप समुद्र के किनारे के किसी शहर में रहते हैं, तो वहां नमी 90 फ़ीसद तक होती है.
मगर आप रेगिस्तानी इलाक़ों में रहते हैं, तो वहां नमी तो बहुत कम होती है.
एक ब्रिटिश कंपनी रिक्वेंच ने इसका भी तोड़ निकाल लिया है. इसने एक कंटेनर के आकार की मशीन बनाई है, जो केवल पंद्रह फ़ीसद नमी में भी काम करती है.
अगर हवा में नमी ज़्यादा होती है, तो ये मशीन रोज़ाना 2 हज़ार लीटर तक पानी निकाल सकती है. वहीं कम नमी की सूरत में भी ये मशीन कम से कम 500 लीटर पानी तो जमा कर ही लेती है, हवा से.
अब हवा से पानी सोखने के लिए एक और तकनीक इस्तेमाल हो रही है. ये स्पंज की तरह काम करती है, जिसे हवा से नमी सोखने के लिए बिजली भी नहीं चाहिए.
रोलां वाल्ग्रीन कहते हैं कि इस मशीन को बनाने में बहुत ऊंचे दर्जे की तकनीक और सामान नहीं चाहिए. यानी इससे जो पानी निकलेगा वो सस्ता भी पड़ेगा.

Thursday, September 6, 2018

धर्म में क्या हैं समलैंगिक संबंध- अप्राकृतिक व्यभिचार या पाप?

जब से भारत के सुप्रीम कोर्ट ने दंड संहिता की धारा 377 पर पुनर्विचार याचिका पर सुनवाई शुरू की, तब से ही भारतीय संस्कृति और हिंदू धर्म में समलैंगिकता के बारे में बहस गरम होने लगी थी.
बहरहाल, गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि समलैंगिक समुदाय को भी समान अधिकार हैं. चीफ़ जस्टिस दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पाँच सदस्यीय पीठ ने आईपीसी की धारा 377 को मनमाना और अतार्किक बताते हुए असंवैधानिक करार दिया.
ये तो रही अदालती फ़ैसले की बात. लेकिन धर्मों में समलैंगिक संबंधों को किस रूप में देखा गया है. सवाल ये है कि क्या धर्म में समलैंगिक संबंध अप्राकृतिक व्याभिचार या पाप है?
समलैंगिकता वाली बहस हमेशा ही पाखंड और दोहरे मानदंडों की वजह से पटरी से उतरती रही है. इस बार भी यह ख़तरा नज़र आ रहा है.
सबसे बड़ा कुतर्क यह है कि सभी धर्म समलैंगिक संबंधों को अप्राकृतिक व्यभिचार या पाप समझते हैं. ईसाई मिशनरियों और कट्टरपंथी मुसलमान मौलवियों के इस देश में पैर रखने से पहले तक हिंदू अपने यौनाचार और काम भावना की अभिव्यक्ति के बारे में कुंठित नहीं थे.
महादेव शिव का एक रूप अर्धनारीश्वर वाला है जिसे आज की शब्दावली में एंड्रोजीनस सैक्सुअलिटी की सहज स्वीकृति ही कहा जा सकता है. मिथकीय आख्यान में विष्णु का मोहिनी रूप धारण कर शिव को रिझाना किसी भी भक्त को अप्राकृतिक अनाचार नहीं लगता था.
महाभारत में अर्जुन की मर्दानगी बृहन्नला बनने से कलंकित नहीं होती, शिखंडी का लिंग परिवर्तन संभवत: सेक्स रिअसाइनमेंट का पहला उदाहरण है.
गुप्त काल में रचित वात्स्यायन के कामसूत्र में निमोंछिए चिकने नौकरों, मालिश करने वाले नाइयों के साथ शारीरिक संबंध बनाने वाले पुरुषों का बखान विस्तार से किया गया है और इस संभोग सुख के तरीक़े भी दर्ज हैं.त्रैण गुणों वाले व्यक्तियों को पापी या अपराधी नहीं घोषित किया गया है. स्त्रियों की आपसी रतिक्रीड़ा का भी सहज वर्णन है. खजुराहो के मंदिर हों या ओडिशा के, उनकी दीवारों पर जो मूर्तियाँ उकेरी गई हैं उनमें भी यही खुली सोच दिखलाई देती है.
मध्य काल में सखी भाव वाली परंपरा को समलैंगिकता का उदात्तीकरण (उत्थान की प्रक्रिया) ही माना सकता है. इस सबका सार संक्षेप यह है कि समलैंगिकता सिर्फ़ अब्राहमी धर्मों में- यहूदी, ईसाई धर्म तथा इस्लाम में ही वर्जित रही है.
पश्चिम में भी इसके पहले यूनान तथा रोम में वयस्कों तथा किशोरों के अंतरंग शारीरिक संबंध समाज में स्वीकृत थे. मज़ेदार बात यह है कि जिस बुरी व्याभिचारी लत को अंग्रेज़ 'ग्रीक लव' कहते रहे हैं उसे फ़्रांसीसी 'वाइस आंग्लैस' (अँगरेज़ी ऐब) कहते हैं.
प्रख्यात साहित्यकार ऑस्कर वाइल्ड से लेकर क्रिस्टोफ़र इशरवुड तक विलायती अभिजात्य वर्ग के लोग बेड ब्रेकफ़ास्ट एंड बॉय की तलाश में मोरक्को से लेकर मलाया तक फिरते रहे हैं.
दर्शन को नई दिशा देने वाले मिशेल फूको ने अपनी समलैंगिकता को कभी छुपाया नहीं, दुर्भाग्य यह है कि पाखंड और दोहरे मानदंडों के कारण एलन ट्यूरिंग जैसे प्रतिभाशाली गणितज्ञ, वैज्ञानिक और कोड ब्रेकर को उत्पीड़न के बाद आत्महत्या करनी पड़ी थी.
इन सबके मद्देनज़र 1960 के दशक में ही वुल्फेंडन कमीशन की रिपोर्ट के बाद ब्रिटेन ने समलैंगिकता वाले विक्टोरियन क़ानून को रद्द कर दिया था, पर ग़ुलाम भारत ने आज़ादी के बाद भी गोरे हुक्मरानों की पहनाई बेड़ियों में जकड़े रहने का फ़ैसला किया.
जब सुप्रीम कोर्ट यह फ़ैसला सुना चुका है कि निजता और एकांत बुनियादी अधिकार है तब यह समझना असंभव है कि कैसे पुलिस समलैंगिकों के आचरण की निगरानी कर धर-पकड़ कर सकती है?
पश्चिम में जिन्हें थर्ड सेक्स कहा जाता है वैसे कई व्यक्ति भारत में इस क़ानून की वजह से प्रताड़ित और तिरस्कृत होते रहे हैं और वेश्यावृत्ति को ही अपनी जीविका का आधार बनाने को मजबूर हुए हैं, निश्चय ही 377 के शिकंजे से मुक्ति उन्हें मानवीय गरिमा के साथ जीने का मौक़ा देगा.
इस बात को भी अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए कि ईसाई अमेरिका के अनेक राज्यों ने समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से निकाल दिया गया है और इनके विवाह को कई प्रांतों ने क़ानूनी मान्यता दी है.द पोप यह कह चुके हैं कि समलैंगिक भी उसी ईश्वर की संतान हैं जिसे हम पूजते हैं इसलिए इनके प्रति भेदभाव नहीं बरता जाना चाहिए.
बदक़िस्मती यह है कि इन्हीं दिनों चर्च में किशोरों और कच्ची उम्र के लड़कों के यौन उत्पीड़न के मामलों का पर्दाफ़ाश हुआ है जिन्हें छुपाने का प्रयास वैटिकन के अधिकारी करते रहे हैं, ऐसे में समलैंगिकता के बारे में खुलकर बोलने से पोप और कार्डिनल बिशप कतराते हैं.
यह याद रखने की ज़रूरत है कि वयस्कों के बीच सहमति पर आधारित समलैंगिक आचरण और किशोरों बच्चों के यौन शोषण में बहुत फ़र्क़ है. यह कुतर्क 377 को जारी रखने के लिए नहीं दिया जा सकता.
21वीं सदी के पहले चरण में वैज्ञानिक शोध यह बात अकाट्य रूप से प्रमाणित कर चुका है कि समलैंगिकता रोग या मानसिक विकृति नहीं है, यह अप्राकृतिक नहीं कही जा सकती. जिनका रुझान इस ओर होता है उन्हें इच्छानुसार जीवनयापन के बुनियादी अधिकार से वंचित नहीं रखा जा सकता.