पहाड़ों से भरा बेहद ख़ूबसूरत देश अफ़ग़ानिस्तान आधुनिक इतिहास की सबसे भीषण मानव जनित त्रासदी झेल रहा है.
अफ़ग़ानिस्तान में चार दशकों से जारी अस्थिरता और सशस्त्र संघर्ष ने देश के बुनियादी ढांचे और अर्थव्यवस्था को तबाह कर दिया है.हिंसा के कारण बड़ी संख्या में अफ़ग़ान नागरिक विस्थापित हुए हैं और ये सिलसिला आज भी जारी है.
एक समय अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता पर रहा तालिबान लगातार अफ़ग़ान सरकार, सुरक्षा बलों और नागरिक ठिकानों पर हमला कर रहा है.
हाल ही में बीबीसी की एक पड़ताल में पता चला है कि पिछले महीने अफग़ानिस्तान में हर रोज़ औसतन 74 लोगों की मौत हुई. यह सब
यानी एक ओर तो अफ़ग़ानिस्तान में चल रहे संघर्ष को ख़त्म करने के रास्ते तलाशे जा रहे थे मगर दूसरी ओर गोलीबारी और बम धमाकों का सिलसिला भी जारी था.
अमरीका और तालिबान के प्रतिनिधियों के बीच दोहा में कई दौर की बातचीत के बाद एक समझौते पर सहमति बनती दिख रही थी मगर अमरीका के राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप ने इस वार्ता से पीछे हटने का ऐलान कर दिया.
कारण बताया- काबुल में हुआ धमाका, जिसमें एक अमरीकी सैनिक समेत 12 लोगों की मौत हो गई थी.
उस समय हुआ जब तालिबान और अमरीका के बीच शांति वार्ता चल रही थी.
सवाल उठता है कि वार्ता के दौरान भी तालिबान लगातार हमले कर रहा था और पिछले एक साल में अफ़ग़ानिस्तान में और भी अमरीकी सैनिकों की मौत हुई थी. फिर समझौते से पीछे हटने की वजह क्या वाक़ई वो है, जो ट्रंप बता रहे हैं?
अफ़ग़ानिस्तान और तालिबान से जुड़े मामलों की गहरी समझ रखने वाले पाकिस्तान में मौजूद वरिष्ठ पत्रकार रहीमुल्ला यूसुफ़ज़ई मानते हैं कि ट्रंप प्रशासन में ही सहमति नहीं थी कि समझौते पर हस्ताक्षर किए जाएं या नहीं.
वो कहते हैं, "ऐसी रिपोर्ट्स आई थीं कि वहां सरकार के अलग-अलग अंगों, जैसे कि सीआईए और पेंटागन में लोग संतुष्ट नहीं थे. अमरीका ने तालिबान की यह शर्त मान ली थी कि वार्ता में अफ़ग़ान सरकार को शामिल नहीं करना है. एक वजह तो ये हो सकती है. दूसरी बात यह है कि 15 महीने की वार्ता में अमरीका वह हासिल नहीं कर सका, जिसकी उसे उम्मीद थी."
अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार और अमरीका की डेलवेयर यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर मुक्तदर ख़ान कुछ और भी कारण बताते हैं. उनका मानना है कि समझौते पर दस्तख़त के लिए चुना गया समय भी राजनीतिक दृष्टि से ट्रंप प्रशासन को मुश्किल में डाल सकता था.
प्रोफ़ेसर मुक्तदर ख़ान कहते हैं, "विश्लेषकों का मानना है कि समझौते की तारीख़ उसी दिन के आसपास पड़ती जब अमरीका पर 2011 में हुए 9/11 हमलों की बरसी थी.
ऐसे में इसी मौक़े पर तालिबान को अमरीका की धरती पर लाना एक पब्लिसिटी डिज़ास्टर हो सकता था. ट्रंप प्रशासन को देरी से इसका अहसास हुआ तो उन्होंने इसे रद्द कर दिया."
दरअसल अमरीका ने अफ़ग़ानिस्तान में प्रवेश ही तब किया था जब तालिबान ने 9/11 हमलों के बाद अल-क़ायदा के प्रमुख ओसामा बिन लादेन को सौंपने से इनकार कर दिया था.
1979 में अफ़ग़ानिस्तान में घुसने वाली सोवियत सेनाएं जब साल 1989 में यहां से हटीं तो अमरीका और पाकिस्तान समर्थित मुजाहिदीनों ने सोवियत संघ के बिठाए शासक नजीबुल्लाह को हटाने की कोशिशें शुरू कर दीं.
इससे अफ़ग़ानिस्तान में भीषण गृह युद्ध का दौर शुरू हो गया था. अराजकता के इस दौर का फ़ायदा मिला पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान की सीमा पर उभरे संगठन तालिबान को.
पश्तो भाषा में, तालिबान का मतलब होता है- छात्र. मजहबी तालीम देने से शुरुआत करने वाले तालिबान ने 1996 में काबुल पर नियंत्रण हासिल कर लिया और फिर अफ़ग़ानिस्तान में सख्त इस्लामी क़ानून लागू कर दिए.
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